आज से पाँच वर्ष पूर्व 8 नवम्बर 2016 को एक तुग्लकी फ़रमान के द्वारा 500रु के प्रचलित नोट को व्यवहार में लाने से प्रतिबंधित कर दिया गया था, जिसका उद्देश्य तथाकथित कालेधन के प्रचलन को रोकना और आतंकवाद की रीढ़ को तोड़ना बताया गया था । यह निर्णय कितना कारगर साबित हुआ, रिज़र्व बैंक द्वारा जारी आँकड़ों से कोई पुष्टि न हो पायी और न ही आतंकवाद को कोई लगाम लगी । इस निर्णय के दो दिन बाद ही फेसबुक पर पोस्ट्स की भरमार देखने को लगी जिनके द्वारा कुछ महानुभाव इस बात पर गर्व करते दिखे कि उनके पास जमा कराने के लिए 500रु का कोई नोट था ही नहीं। इस प्रकार मानो सरकार के साथ साथ वो भी यह साबित करना चाह रहे थे कि 500रु का नोट पास में होना गुनाह हो । खैर मैं सपत्नीक इस गुनाह में शामिल था क्योंकि हम दोनों के पास बदलवाने के लिए 500रु के नोट थे और हम न केवल कतार में खड़े हुए बल्कि अपने ही जमा खाते से 4000/- रु प्रति के हिसाब से भीख/ दान भी प्राप्त किया ।नोटबंदी के परिणाम स्वरूप अर्थ व्यवस्था पर जो दूरगामी असर पड़ा वो पड़ा पर सबसे दुखदायी बात यह रही कि नोट जमा कराने के लिए लंबी कतारों में खड़े लोग जिनमे अधिकतर मजदूर, कर्मचारी वर्ग, छोटे व्यापारी, दुकानदार आदि ही शामिल थे, उनका सार्वजनिक तौर पर भाषणों में भी मज़ाक उड़ाया गया, मानो वे ही काले धन वाले हों । बड़े लोगों ने इस काम के लिए proxy में और लोगों को लाइन मे लगा दिया होगा या और हथकंडे अपना लिए होंगे । इन्ही लंबी कतारों में खड़े असंख्य लोगों मे से एक सौ से अधिक लोगों की विभिन्न कारणों से हुई मौत पर आँसू केवल परिजनों ने ही बहाए । अन्य किसी ओर से संवेदना प्रकट किए जाने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता , न उठा । अढ़ाई वर्ष बाद दुबारा सत्ता में आयी पार्टी की सरकार को अपनी तरफ से जनता ने ही legitimacy प्रदान कर दी । सत्ता को और क्या चाहिए !!