Saturday, October 14, 2017

शैलेश मटियानी

आज ख्यातनाम कहानीकार व उपन्यासकार शैलेश मटियानी की जयंती है। उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव बाड़ेछीना,ज़िला अलमोड़ा, उत्तराखंड में 1931 को जन्मे रमेश सिंह मटियानी ‘शैलेश’ ने बचपन से ही संघर्षपूर्ण जीवन जीया व कठिनाइयाँ झेलीं । छोटी सी उम्र में पिता को खोया व जीवन यापन के लिए चाचा से जुड़े ।परिवार की इतनी साधारण पृष्ठ भूमि कि गर्व करने लायक कुछ नहीं बल्कि लेखन आरंभ करने और लेखक बन जाने के बाद भी पिता और चाचा के नाम के साथ नाम जोड़ कर तीखे कटाक्ष और तंज़ का सामना करने को मजबूर होना उनकी नियति में शुमार रहा। उत्तराखंड से दिल्ली, कानपुर , मुजफ्फनगर आदि होते हुए बंबई पहुँचना और इस इरादे से कई बार जान बूझ कर अपने आप को पुलिस के हवाले करना कि रोटी और सोने का जुगाड़ थाने में हो जाए- ऐसे अनुभवों से गुज़र कर या अभाव और कठिनाइयों कि आंच में तप कर यदि कोई लेखक बनता है तो ज़ाहिर है यथार्थवादी ही होगा ।
कुछ अरसा पूर्व उनकी चर्चित कहानी ‘मैमूद’ गूगल के सौजन्य से नेट पर मिल गयी । यूं तो कहानी के शीर्षक से पहले ही अंदाज़ा हो गया था कि मैमूद शब्द महमूद का ही स्थानीय बोलचाल में परिवर्तित रूप है। कहानी के शुरू में ही महमूद का परिचय मिल जाता है और आश्चर्यजनक रूप से वह व्यक्ति न हो कर एक पालतू बकरा है जिसे उसकी मालकिन जद्दन बच्चों से भी ज़्यादा प्यार करती है। यहाँ तक कि अपनी एक साथिन रहिमन के ‘ बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी’ जैसी आम कहावत मुंह से निकालने पर उससे उलझ पड़ती है ।
खैर कहानी में मोड़ तब आता है जब कोई रिश्तेदार जद्दन के घर आने वाले होते हैं और उनकी आव भगत में कोई कोर कसर न रह जाए, इस बात कि चिंता परिवार वालों को आ घेरती है । बिरादरी में गोश्त परोसा जाना दावत का एक ज़रूरी हिस्सा है, तो अन्य विकल्प जो कि आर्थिक तंगी की वजह से अपनाना असंभव जान पड़ता है, की अपेक्षा, बात महमूद पर आती है कि क्यों न मेहमानों को उसी का गोश्त परोसा जाए। एक तरफ निर्धनता और दूसरी तरफ बिरादरी में नाक कटने से बचाने की चिंता क्योंकि उनके घर जाने पर रिश्तेदारों ने भी आवभगत में कोई कमी न रखी थी। कोई चारा न देख जद्दन मातमपुरसी का बहाना बना कर कहीं रिश्तेदारी के लिए प्रस्थान कर जाती है, क्योंकि अपने सामने वह ऐसा होते हुए नहीं देख सकती .रात को जद्दन के वापिस आने तक सब कुछ हो चुका होता है। जद्दन दुखी भी है और क्षुब्ध भी इसलिए खाना खाने से इंकार कर देती है ।
आखिर ‘बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी’ कहावत ही साक्षात रूप ले लेती है, और वह भी इतनी जल्दी ।
शैलेश मटियानी की यह कहानी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है ।
इसी प्रकार एक अन्य कहानी ‘उसने तो नहीं कहा था’ जो मासिक पत्रिका ‘वागर्थ’ । के किसी अंक में पढ़ने का संयोग हुआ जिसके शीर्षक ने ही बरबस ध्यान खींचा। शैलेश मटियानी की इस कहानी में दो फौजी- जसवंत सिंह और कुंवर सिंह- व एक महिला लछिमा ठकुराइन है ।दोनों ही लछिमा ठकुराइन से प्यार करते हैं इस कारण एक दूसरे की जान भी लेने पर उतारू प्रतिद्वंद्वी प्रतीत होते हैं . परन्तु मोर्चे पर तैनाती के समय, जान लेने का ‘सुअवसर’ प्राप्त होने पर भी एक फौजी, दूसरे की जान बचाता है और गोली चलाने वाले शत्रु सैनिक को ढेर कर देता है. लछिमा ठकुराइन पत्नी तो सिर्फ एक की है पर प्यार दोनों से बराबर करती है। ’उसने तो नहीं कहा था’ पर इस महान कृत्य के पीछे प्रेरणा लछिमा ठकुराइन ही है।इस कहानी में प्रेम का उदात्त स्वरूप प्रस्तुत किया गया है और एक कुशल कथा शिल्पी के हाथों यह कहानी भी बेजोड़ बन पड़ी है ।
एक अन्य कहानी जो मैंने पढ़ी है वह ‘अर्द्धांगिनी’ है ।इस कहानी के केंद्र में सूबेदार नैन सिंह है जो अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता है ।कहानी उसके गाँव जाते समय आखिरी बस के छूट जाने व संयोग से एक ट्रक में लिफ्ट मिल जाने से शुरू होती है । ट्रक ड्राईवर से परिचय निकलता है तो सफर भी बातचीत में खूब कटता है पर नैन सिंह सारा समय अपनी सूबेदारनी के बारे में ही सोचता रहता है और ढाबे में पराठे बना कर परोसने वाली महिला में भी उसे सूबेदारनी की झलक मिलती है । छुट्टियों के दिन मानो पंख लगा कर उड़ते हैं । जब चार- पाँच दिन शेष रहते हैं तो नैन सिंह अपनी पत्नी को ले कर चल पड़ता है और एकांत पा कर विभिन्न मुद्राओं में उसके चित्र कैमरे में क़ैद करता है । सूबेदारनी भी बिना ना नुकर और नखरे के फोटो खिंचवाती है । आखिर वापिस जाने का दिन आ जाता है । समान उठाने के लिए कहने के बावजूद जब कोई नहीं आता तो कोई जोखिम न उठाते हुए सूबेदारनी अपने सिर पर नैन सिंह का सामान उठा लेती है और जहां पर कुली मिलता है, वहाँ तक पहुंचा देती है और टकटकी लगा पर अपने पति को नजरों से दूर होते हुए निहारती है ।यह एक विलक्षण प्रेम कथा है बिना किसी तिकोन, एक तरफा प्यार, या बेवफ़ाई के प्रसंग के ,एक विशुद्ध दाम्पत्य प्रेम कथा ।
जब वो अपनी रचनाओं में पहाड़ के दर्द को बयाँ करते हैं तो आंचलिक कथाकार/उपन्यासकार होने का आभास देते हैं पर महानगरों की विसंगतियों, विषमताओं का उनके द्वारा किया गया वर्णन उनके लेखन को विस्तार देता है।
कुछ आलोचक तो यहाँ तक भी कहते हैं कि विश्व स्तरीय उत्कृष्ट कहानियां जितनी संख्या में शैलेश जी ने रचीं उतनी और किसी और लेखक ने नहीं ।
शारदा सम्मान और लोहिया पुरस्कार समेत अनेक सम्मान और पुरस्कार भी उन्हें मिले, यहाँ तक कि फणीशवरनाथ रेणु पुरस्कार भी, जब कि रचना कर्म में शैलेश मटियानी ‘रेणु’ से वरिष्ठ थे और श्रेष्ठता में भी उनसे कहीं उन्नीस नहीं । इसे विडम्बना कहा गया है जो ये शायद है भी । तीस उपन्यासों, अनेक कहानी संग्रहों व कुछ लेखों के साथ वो हिन्दी साहित्य के शिखर पर अपना स्थान रखते हैं ।
इस महान साहित्यकार को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि !

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