शैलेश मटियानी मेरे प्रिय कथाकार हैं , जिनकी रचनाएं मैं बड़े शौक से पढ़ता हूँ । आजकल उनके दो कथा संग्रहों का पठन कर रहा हूँ । एक संग्रह की दो कहानियों के शीर्षकों पर नज़र गयी तो दोनों पढ़ लीं । 'बाली- सुग्रीव' और 'दशरथ' नाम की कहानियां राम लीला प्रसंगों पर आधारित हैं ।
' बाली- सुग्रीव' कहानी में दोनों पात्रों की प्रतिद्वंद्विता केवल मंच तक ही सीमित न रह कर किस प्रकार उनके वास्तविक जीवन में प्रवेश कर जाती है,का सुन्दर सजीव चित्रण है । साल दर साल वही दो व्यक्ति इन दो पात्रों की भूमिका निभा रहे हैं । अच्छे अभिनय के बूते ख़ूब वाहवाही लूटने वाला बाली का अभिनय करने वाला पात्र हर बार सुग्रीव के हाथों मारा जाना पसंद नहीं करता और अदला बदली कर सुग्रीव का रोल करना चाहता है । कारण यह भी है कि सब यश कीर्ति सुग्रीव की झोली में आते हैं जबकि कारनामा राम के बाण का है ।इसके अलावा मंच का सुग्रीव वास्तविक जीवन में भी श्रेष्ठ होने का भ्रम पाल लेता है और डींगें मारना शुरू कर देता है । परंतु केवल एक मैडल का लालच ही है जो बाली के पात्र को बांधे हुए है । हमेशा की तरह इस बार भी बाली सुग्रीव आमने सामने हैं पर बाली कुछ और ही ठाने हुए है । आपसी युद्ध के समय बाली , पहचान के लिए सुग्रीव के गले में डाली हुई पुष्प माला ज़बरदस्ती निकाल कर अपने गले में डाल लेता है और उसकी पीठ पर मुगदर से वार करके विजयी मुद्रा में खड़ा हो जाता है।इतने में राम का बाण भूमि पर लेटे सुग्रीव को लगता है।सब गड़बड़ हुआ देख लोग राम से कहते हैं कि सुग्रीव को बाण क्यों मारा । अब राम की दुविधा यह कि अपनी दी हुई विजयमाला पहने हुए बाली को बाण मारते भी तो कैसे ।
'दशरथ' कहानी में दशरथ की भूमिका एक नए पात्र को दी गयी है, क्योंकि वर्षों से दशरथ की भूमिका निभाने वाला पात्र स्थानांतरित हो कर जा चुका है । नए चुने गए पात्र का दशरथ से साम्य इस बात का है कि उसकी भी तीन पत्नियां हैं । नया पात्र अभिनय के प्रति बहुत गंभीर है और रिहर्सल के दौरान रटाये गए शब्दों को घर आ कर भी दोहराता रहता है , जिससे उसकी तीनों पत्नियां तंग आकर उलाहना भी दे देती हैं । खैर, मंचन का दिन आ जाता है और तीनों पत्नियां भी दर्शकों के बीच विराजमान हैं ।
विडम्बना यह कि भूमिका निभाते समय ' हे राम ' कहते कहते पात्र के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं और रह जाता है तीनों पत्नियों का रूदन और विलाप !!