यह पोस्ट स्कूल के मेरे हिन्दी अध्यापकों को समर्पित है ।
मेरी शिक्षा शिमला के लेडी
इरविन स्कूल से आरंभ हुई जो मूल रूप से कन्या विद्यालय था और लड़के चौथी कक्षा तक ही मान्य थे । इन चार वर्षों अलग अलग कक्षाओं मेँ एक ही अध्यापिका जिसे क्लास टीचर कहते थे,सुबह
से शाम तक पूरा दिन हर विषय पढ़ाती थी । बाद मे आगे की पढ़ाई के लिए पाँचवीं कक्षा में
जब एस॰ डी॰ स्कूल में प्रवेश लिया तो पाया
कि हर विषय के लिए अलग अध्यापक उपलब्ध है । मेरे कक्षा प्रभारी ज्ञानी बलकार सिंह
थे जो पंजाबी भाषा के अध्यापक थे ।मेरे प्रथम
हिन्दी अध्यापक श्री उद्धवानंद थे जिनके मार्गदर्शन में मैंने कलम से लिखना सीखा ।
पाँचवीं कक्षा में मेरे प्रवेश लेने के 3-4 महीने बाद ये हिन्दी अध्यापक नौकरी छोड़
कर अन्यत्र चले गए और अस्थायी प्रबंध के तौर
पर लगभग डेढ़- दो महीने हिन्दी का पठन पाठन एक प्रयोगशाला सहायक के हवाले रहा,
परिणामस्वरूप कोई पढ़ाई न हुई । इसके बाद एक युवा अध्यापक श्री चमनलाल गुप्त हिन्दी
अध्यापक के रूप में आए ।थोड़े ही समय में गुप्त जी ने पढ़ाने की अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का परिचय दिया और पढ़ाने
के अतिरिक्त वाद- विवाद व भाषण प्रतियोगिताओं के लिए छात्रों को तैयार करने में भी भरपूर योगदान दिया
। मूल रूप से हिन्दी विषय के अध्यापक होते हुए उनने हमें अंग्रेज़ी और सामाजिक अध्ययन
भी कुशलता से पढ़ाए । स्कूल में पढ़ाते हुए इनने स्नातक,
बी॰एड॰ और एम॰ए॰(हिन्दी) की परीक्षाएं पास की। बाद का सफर तय करते हुए विश्व विद्यालय
में पढ़ाते हुए शिक्षा क्षेत्र में उपलब्धियां प्राप्त कीं और आज भी किसी न किसी रूप में सक्रिय हैं ।
श्री भवानन्द भास्कर बड़ी कक्षाओं
के हिन्दी अध्यापक थे । बहुत अच्छा पढ़ाते थे और उनका सैन्स ऑफ ह्यूमर कमाल का था ।
हँसाने के साथ साथ उनकी बातों में छात्रों के लिए शिक्षा के प्रति गंभीर रहने का संदेश
निहित होता था और भविष्य के लिए चेतावनी भी । कक्षा में यदि कोई छात्र ध्यान नहीं देता
था तो उसके लिए ‘मूर्ख ज्ञानी’ जैसा सम्बोधन भी उनके शब्दकोश में था ।
तीनों भाषाओं यथा हिन्दी,
पंजाबी और अंग्रेज़ी के हमें उत्कृष्ट अध्यापक मिले,परिणामस्वरूप भाषाओं में मुझे
विशेष रुचि रही ।
अपने अध्यापकों के प्रति मेरा
साभार नमन !!
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