ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम
रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है
- क़मर बदायुनी
कुछ ऐसी ही अनुभूति आज ' अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' के अवसर पर हो रही है ।
समाचार पत्र लबरेज़ हैं उन युवतियों व महिलाओं के चित्रों और उनकी उपलब्धियों के वर्णन से जिन्होंने अपनी मेहनत और लगन के बलबूते विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धियां प्राप्त की और अपने माता-पिता व परिजनों का नाम रौशन किया । इनमें से अधिकतर को पढ़ने और बढ़ने के अवसर प्राप्त हुए और उन्होंने इनका भरपूर लाभ उठाया । कुछ ने साधन संपन्न न होते हुए भी बाधाएं पार की और अपने लिए अवसर जुटाए ।ये सभी महिलाएं बधाई की पात्र हैं ।
पर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है जो क्षुब्ध और विचलित करता है । आए दिन महिलाओं , यहाँ तक कि कमउम्र बच्चियों के बलात्कार और हत्या की घटनाओं में हो रही वृद्धि चिंता का विषय है ।शिक्षित/ अशिक्षित महिलाएं घर पर और अपने कार्य स्थल पर प्रताड़ना का शिकार होती हैं । गाँव और शहरों में कमज़ोर वर्ग की महिलाएं पुलिस की ज़्यादतियों को सहने पर मजबूर हैं ।
अज़ीम शाइर साहिर लुधियानवी ने अपनी ख़ूब सूरत शायरी के माध्यम से मज़लूम महिलाओं के पक्ष में सदा आवाज़ उठाई है। संयोग से आज उनकी जन्म शताब्दी भी है
वो लिखते हैं
मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी
यशोदा की हमजिन्स राधा की बेटी ,
पयम्बर की उम्मत ज़ुलेखा की बेटी,
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं.....
एक अन्य गीतकार के शब्द भी गूंजते हैं-
'अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो अरे ओ रौशनी वालो...
गरज़ ये कि अभी तक सब कुछ अधूरा और खोखला है ।
अभी और मंज़िलें तय करना बाक़ी है , नारों और वादों से ऊपर उठ कर ।
शुभकामनाएं !!
No comments:
Post a Comment