Sunday, May 10, 2020

कोई अजनबी नहीं / शैलेश मटियानी


अभी हाल में अपने चहेते जनवादी लेखक- साहित्यकार शैलेश मटियानी का लघु उपन्यास ‘ कोई अजनबी नहीं’ पढ़ने का सुयोग हुआ ।एक ग्रामीण महिला रामप्यारी को केंद्र में रख कर लिखा गया यह उपन्यास मटियानी की चिर परिचित शैली में है। रामप्यारी का विवाह गाव में ही एक युवक सतपाल सिंह, जिसे छोटे मास्टर जी कहा गया है, के साथ होता है पर सतपाल सिंह राम प्यारी की लम्बी क़दकाठी के आगे खुद को बौना पा कर हीनग्रंथि का शिकार है परिणाम स्वरूप विवाह टूट जाता है । गाव वालों की प्रश्नवाचक दृष्टि , जो इस वास्तविकता से अंजान हैं या अंजान रहना चाहते हैं,और अकेली महिला के प्रति पुरुष समाज की आम व्याप्त भावना , रामप्यारी के लिए असहनीय हो जाती है और वह अजनबियत की तलाश में पहले गाँव से क़स्बा और कस्बे से महानगर दिल्ली पहुँच जाती है । उमर हुसैन तांगेवाला जो अपना नाम उमराव सिंह बता कर उसे गाँव से ले आता है कि उसे किसी साहब ये यहाँ नौकर रखवा देगा , और चौधरी मातादीन जो उसे अपने साथ ले जाता है पर उससे यह उम्मीद पाले हुए है कि वह उसके साथ साथ उसके कुछ साथियों के लिए भी उपलब्ध रहे, उसके इस विश्वास या शंका को ही बल देते हैं कि गाँव हो या क़स्बा या फिर महानगर, पुरुष की मानसिकता एक जगह एक सी है और वो अकेली महिला को केवल ‘उपलब्ध’ मान कर चलते हैं ।पर रामप्यारी अपनी अस्मिता पर आंच नहीं आने देती और अपना भविष्य तलाशने निकाल चलती है । किन्ही स्कूटर वाले सरदार जी और एक खोमचेवाले के उसकी ओर इंगित कटाक्ष और वक्रोक्ति सहन करती करती वह खुद को एक निर्माण स्थल पर पाती है , जहां एक वृद्ध महिला मिसेज कपूर के पुत्र और वधु का मकान बन रहा है । उसके अनुनय पर मिसेज कपूर उसे बतौर मजदूर रख लेती है और अपनी मजबूत क़द काठी कि वजह से वह ईंटे उठाने का काम बख़ूबी करती है । एक बुजुर्ग महिला रत्तों ताई उसे अपने यहाँ आश्रय देती है और कुछ दिनों बाद उसके सामने तीन तीन झुग्गियों के मालिक हरभजन चौधरी के साथ रहने का प्रस्ताव रखती है जिसकी एक पत्नी पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी है और दूसरी बिंदो चौधरानी तीन बच्चों को संभाले हुए उसके साथ रहती है ।एक तरह से वह बिंदो चौधरानी की सौत ही हुई पर इस तरह की कोई भावना उसके मन में नहीं है और वह चौधरी और चौधरानी दोनों की अनुपस्थिति में बच्चों का पूरा पूरा ध्यान रखती है । स्त्रीत्व और ममत्व दोनों भावनाएँ उसके भीतर पुनर्जीवित होती प्रतीत होती हैं। अतीत, वर्तमान और भविष्य के तिराहे पर खड़ी राम प्यारी अब भी कुछ अनिश्चितता और दुविधा की स्थिति में लगती है ।उपन्यास का अन्तिम वाक्य‘हो सकता है कि.....’ उसकी दुविधा को परिभाषित करता है ।
शैलेश मटियानी के उपन्यास अन्य गम्भीर साहित्य की परम्परा में हैं और शुरू में ही रुचि नहीं जगाते पर ज्यों ज्यों कथ्य आगे बढ़ता है , रुचि भी बढ़ती है और चिंतन भी ।इस उपन्यास ‘कँटीले के पत्तों’ एक्स्प्रेशन बार बार आया है शायद उपमा को सशक्त बनाने के लिए । कुछ पाठकों को एक आध वाक्य की भाषा या शब्दों पर भी आपत्ति हो सकती पर जिस पृष्ठभूमि के लोगों का वर्णन इस उपन्यास मे है, इससे यथार्थपूर्ण चित्रण को और मज़बूती मिलती है ।

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