Tuesday, November 29, 2016

अली सरदार जाफ़री

आज उर्दू के अज़ीम- ओ- शान शाइर अली सरदार जाफ़री की जयंती है । अपने शुरुआती दौर में जोश मलीहाबादी,फ़िराक़ गोरखपुरी और जिगर मुरादाबादी जैसे चोटी के शायरों से प्रभावित अली सरदार जाफ़री ने अपनी उर्दू शाइरी में भाषा का एक अलग मुहावरा गढ़ा और अपने लिए एक ऊंचा मुकाम हासिल किया । अपनी तेज़ तर्रार तहरीरों के सबब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से निकाले गए व बी.ए. की पढ़ाई दिल्ली के एक कॉलेज में दाखिला ले कर मुकम्मल की.उसके बाद एम.ए. में दाखिला लिया पर राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के परिणाम स्वरूप पढ़ाई पूरी न हो सकी। इस बीच, 1940 और 1941 में दो बार जेल भी गए। वो प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक- सदस्यों में से एक थे. उनकी शाइरी में इंकलाब, कौमी यक्जहदी, और साम्प्रदायिक सद्भाव प्रचुर मात्र में मिलता है और वो गंगा जमनी तहजीब के पैरोकार के रूप में सामने आते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य रह चुकने के कारण कमजोर और शोषित वर्गों के प्रति उनकी सहानुभूति सहज ही उनकी शाइरी में पढ़ने को मिलती है। उनने ‘धरती के लाल’ व ‘परदेसी’ फिल्मों के लिए गीत लिखे व कुछ वृत्त चित्रों का भी निर्माण किया ।उनकी साहित्यिक यात्रा 1938 में छापे उनके कहानी संग्रह ‘मंज़िल’ से हुई। परंतु बाद में शाइरी का रुख किया और ग़ज़ल, नज़्म और शेर कहने शुरू किए। उनका पहला शाइरी संग्रह 1944 में ‘परवाज़’ नाम से प्रकाशित हुआ। उनकी शाइरी के अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं
अली सरदार जाफ़री का शुमार एशिया उपमहाद्वीप के चोटी के उर्दू शायरों में होता है। उनका रुतबा फिराक गोरखपुरी,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, शकील बदायूँनी, कैफ़ी आज़मी और जांनिसार अख्तर के समकक्ष बैठता है।
फ़िराक़ गोरखपुरी और कुर्रातुलैन हैदर के बाद ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले वो तीसरे उर्दू साहित्यकार हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें पद्मश्री समेत अनेकों सम्मानों से नवाजा जा चुका है। जिस अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी से उन्हें निकाला गया था , बाद में उसी नें उन्हें डी.लिट्ट . की मानद उपाधि प्रदान की।
एक बानगी:
“सिर्फ़ लहरा के रह गया आँचल
रंग बन कर बिखर गया कोई
गर्दिश-ए-ख़ूं रगों में तेज़ हुई
दिल को छूकर गुज़र गया कोई
फूल से खिल गये तसव्वुर में
दामन-ए-शौक़ भर गया कोई"
और-
“आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तनहाई
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुसवाई
ये फूल से चहरे हैं हँसते हुए गुलदस्ते
कोई भी नहीं अपना बेगाने हैं सब रस्ते
राहें हैं तमाशाई रही भी तमाशाई
मैं और मेरी तन्हाई
अरमान सुलगते हैं सीने में चिता जैसे
कातिल नज़र आती है दुनिया की हवा जैसे
रोटी है मेरे दिल पर बजती हुई शहनाई
मैं और मेरी तन्हाई”
आकाश के माथे पर तारों का चरागाँ है
पहलू में मगर मेरे जख्मों का गुलिस्तां
है आंखों से लहू टपका दामन में बहार आई
मैं और मेरी तन्हाई
हर रंग में ये दुनिया सौ रंग दिखाती है
रोकर कभी हंसती है हंस कर कभी गाती है
ये प्यार की बाहें हैं या मौत की अंगडाई
मैं और मेरी तन्हाई”
इस अज़ीम शाइर को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि !

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