Saturday, April 8, 2017

करईं

बात 1995 की गर्मियों की है, मैं ज़िला कांगड़ा के पालमपुर में प्रतिनियुक्ति पर वन विभाग में तैनात था। शिमला मुख्यालय में एक ज़रूरी बैठक में भाग लेने के बाद मैं और मेरा एक सहकर्मी वापिस पालमपुर जा रहे थे । गाड़ी की गति बहुत तेज़ थी और रास्ते में एक स्थान पर शायद घुमारवीं और हमीरपुर के बीच किसी स्थान पर पीली चोंच वाली चिड़िया जिसे हम पहाड़ी भाषा में करईं कहते हैं, विंडस्क्रीन से टकरा कर मर गयी और एक ओर को जा गिरी । मेरे साथी सहकर्मी ने अपनी काँगड़ी बोली में ड्राईवर को गाड़ी रोकने के लिए कहा तो मेरे पूछने पर बताया कि ये चिड़िया ले जानी है। उसका अभिप्राय समझ कर मैंने गाड़ी रोकने से मना कर दिया और कहा कि हम इसे ब्राह्मणी कहते हैं और आप कुछ और ही करना चाहते हैं ।


 खैर, चिड़िया वहाँ की वहाँ रह गयी । कुछ और आगे गए तो सहकर्मी ने ड्राईवर को अपनी बोली में कहीं आम का पेड़ नज़र आने पर गाड़ी रोकने की हिदायत की । उसने कहा कि उसे घर पर पूजा करवानी है जिसके लिए आम की लकड़ी चाहिए । आम का पेड़ भी मिल गया और ड्राईवर एक टहनी तोड़ कर भी ले आया । फिर मैंने हल्के फुल्के अंदाज़ में सहकर्मी से कहा कि एक ओर तो आप पूजा करवाने जा रहे हैं, दूसरी ओर चिड़िया ले जाने वाले थे । कुछ दिनों तक कार्यालय में भी इस बात की चर्चा रही । जब भी चिड़िया नज़र आती तो सहकर्मी बोल उठता कि साहब इसे ब्राह्मणी बता रहे थे । अपने अपने स्थान पर प्रचलित विश्वास और मान्यता की बात थी पर तात्कालिक तौर पर मुझे कुछ विरोधाभास नज़र आया। यों विरोधाभास तो हम सब में ही होते हैं । 22 साल पुरानी यह घटना कभी कभी याद आ जाती है !
( चित्र गूगल से साभार )

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