आज एशिया महाद्वीप के उर्दू और फ़ारसी के अज़ीम शाइर मिर्ज़ा असदुल्ला खां बेग ‘ग़ालिब’ की जयंती है .अपनी हर दिल अज़ीज़ ग़ज़लों और हर मौके पर उद्धृत किए जाने वाले शेरों के बल पर ‘ग़ालिब’ को उर्दू अदब में बहुत ऊंचा स्थान हासिल है.ज़ाहिर है रोज़ मर्रा की ज़िंदगी में जितना इस्तेमाल उनके शेरों और रुबाईयों का होता है, किसी और शाइर की रचनाओं का नहीं ।एक बानगी :
“तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई”
“बूए-गुल, नाला-ए-दिल, दूदे चिराग़े महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला
चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला”
“तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता”
“बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे होता है
शब-ओ-रोज़ तमाशा, मेरे आगे”
“उग रहा है दर-ओ-दीवार से सबज़ा ग़ालिब
हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है”
“बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है”
न जाने किस रौ में बह कर ग़ालिब अपनी तारीफ इन लफ्जों में करते है-
“हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है अन्दाज-ए-बयां और"
और इसके लिए उनके समकालीन तमाम दीगर शाइर उनकी आलोचना भी करते हैं ।
पर ऐसा भी नहीं है कि किसी और शाइर को ‘ग़ालिब’ खातिर में नहीं लाते।
खुले दिलोदिमाग से वो मीर तकी ‘मीर’ की तारीफ कुछ इस तरह करते हैं-
“रेखते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो गालिब
कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था”
और मोमिन खाँ ‘मोमिन’ के शेर-
“तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता”
पे इतना लट्टू हो जाते हैं कि इस एक शेर की एवज़ में अपना पूरा दिवान मोमिन के नाम कर देने को तैयार हो जाते हैं ।अलबत्ता, समकालीन शाइर इब्राहीम ज़ौक़ व उनकी शायरी दोनों ही ग़ालिब को नापसन्द हैं और वो इन्हें खातिर में नहीं लाते ।
ग़ालिब का जीवन विरोधाभास से भरा है, नौकरी के लिए दरख्वास्त करने दरबार में जाते हैं तो पालकी में । अपनी तुर्क विरासत का रुतबा इस क़दर हावी है कि थोड़ी बहुत शाही पेंशन पर ही गुज़र होती है, पर ठाठ और आत्म सम्मान में कोई कमी नहीं ।
ऊपर दिया गया उनका शेर- बना है शह का मुसाहिब......-उनके अपने आप पर किये तंज़ को बयां करता है ।अपनी सातों संतानों के कम उम्र में ही रुखसत हो जाने का ग़म भी उनकी शायरी में खूब झलकता है ।
ग़ालिब की शाइरी में रूमानियत भी है और फलसफा भी ।
कुल मिला कर ग़ालिब की शाइरी और शख्सियत को किसी खास कित्ते या कालखंड में बांधा नहीं जा सकता ।
इस महान शाइर को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि !
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