Friday, July 1, 2016

‘डाची’ – पुनर्पाठ

‘डाची’ शब्दों के कुशल चितेरे उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ की एक यादगार लघुकथा है।

मुसलमान जाट बाकर एक गरीब व्यक्ति है जो कुम्हार का पुश्तैनी धंधा छोड़ कर मेहनत मजदूरी करता है। जब तक उसकी पत्नी ज़िंदा थी, वह काम धाम कम ही करता था, क्योंकि उसकी पत्नि बहुत मेहनती थी और सारा काम काज वही करती थी परंतु पाँच वर्ष पूर्व ही पत्नी इकलौती संतान रज़िया को उसके हवाले कर के स्वर्ग सिधार गयी । पत्नि के इस तरह चले जाने के बाद बाकर को अपना और अपनी बेटी रज़िया के पालन करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है और वह अपनी बेटी की हर ईच्छा को पूरा करने के लिए कृत संकल्प है। बाकर के साथ उसकी एक बहिन भी रहती है जो अब रज़िया की देख भाल करती है । रज़िया जब छोटी थी तो बाकर तरह तरह के खिलौने और मिठाइयाँ उसके लिए ले आता था, और वो प्रसन्न हो जाती थी परंतु अब रज़िया कुछ बड़ी हुई तो उसने एक बार मशीरमाल की डाची और उस पर उसकी बेटी को सावर देख कर डाची की फरमाइश कर दी। बाकर ने दिन रात मेहनत करके कुछ रुपये जोड़े और एक दिन मन बना कर चला जाता है डाची लेने।आखिर उसे एक सुडौल और देखने में सुन्दर डाची पसंद आ जाती है। ऊंटों और भैंसों का व्यापारी चौधरी नंदू दाम में दस रुपया छोड़ देने के एहसान का बोझ उस पर लादते हुए बाकर जाट की कुल जमा पूँजी- जिसे जोड़ते हुए उसे डेढ़ वर्ष लग गया था – कुल 150 रुपया में डाची उसे बेच देता है, परंतु पाल पोस कर बड़ी की हुई डाची को दूसरे के हाथ सौपने का दुख उसे भी है और इसलिए वह बाकर से डाची का अच्छी तरह ध्यान रखने के लिए कहना नहीं भूलता। बाकर खुशी खुशी डाची की रस्सी पकड़ कर घर की ओर वापिस आ रहा होता है और रास्ते में वह नानक बढ़ाई के पास डाची के लिए गदरा लेने के लिया रुकता है ताकि रज़िया डाची की सवारी कर सके। न नानक वहाँ होता है , न गदरा तैयार मिलता है ।दूसरी तरफ उसे रज़िया के सो जाने से पहले पहले घर पहुँचने की भी जलदी है। एक बार और कोशिश करते हुए बाकर मशीरमल के पास जाता है कि शायद कोई पुराना गदरा पड़ा हो और वह उससे ले ले ।
पर नियति को कुछ और ही मंजूर है । मशीरमल की पारखी दृष्टि डाची पर पड़ती है तो वह उसे लेने के लिए तैयार हो जाता है। बाकर सीधा सच्चा आदमी है और पूछे जाने पर डाची का सही दाम बता देता है । इस पर बाकर को कुछ सोचने और कहने का समय दिये बिना डाची उससे ले लेता है । मशीरमल इस सौदे से खुश है और 165 रुपये देना तय करता है और अंटी से निकाल कर 60 रुपये उसे थमा देता है , इस वादे के साथ कि एक दो महिना बाद वो बाकी रकम बाकर को दे देगा । बाकर गरीब होने के कारण निस्सहाय है और प्रतिरोध करने में असमर्थ , इसलिए मात्र 60 रुपये गिरह में बांध कर चल पड़ता है । फिलहाल न उसके पास न डाची है और न पूरा पैसा ! अब उसकी सोच ये है कि उस के घर पहुंचने से पहले रज़िया सो चुकी हो और वो चुपके से घर में दाखिल हो, इसके लिए थोड़ी दूरी पर उसे इन्तज़ार करना पड़ता है ।
गरीबी जो कराए, वो भी कम और जो न कराए वो भी कम !
‘अश्क’ जी की ये कालजयी कहानी अनेकों सवाल मन में खड़ा कर जाती है !

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