बचपन में, जब मैं पाँचवी कक्षा का छात्र था , हिन्दी के पाठ्यक्रम में एक कहानी थी “ तैमूर लंग ”। कहानी मुझे इसलिए भी याद है कि उस समय कहानी और शीर्षक का दूर दूर से भी कोई संबंध मालूम न पड़ा क्योंकि एक तो इतिहास की इस क्रूर हस्ती से परिचय कुछ बाद में हुआ , दूसरा , कहानी में शीर्षक केवल एक बार आया है वह भी अंत में। लेखक का नाम मुझे याद नहीं पर कहानी प्रथम पुरुष में थी और दो मित्रों के बारे में थी जो एक ही नाटक कंपनी में काम करते थे ।कहानी का लेखक नाटककार था और उसका मित्र अभिनेता। दुर्भाग्य वश एक नाटक के मंचन के समय अभिनेता मित्र के पाँव में कील चुभ गयी और सेप्टिक होते होते पाँव कटवाने तक की नौबत आ गयी । अभिनेता मित्र तो जीवन से निराश हो ही चुका था क्योंकि अभिनय क्षेत्र की समस्त राहें बंद हो चुकी थी । कई दिन दोनों मित्रों की कोई मुलाक़ात न हुई । उधर लेखक मित्र को चैन कहाँ , वह अपने मित्र के लिए कुछ करना चाहता था । उसने अपने मित्र के लिए एक नाटक लिखा और पांडुलिपि उसे दिखाने के लिए ले गया । नाटक का शीर्षक था “ तैमूर लंग ” ।
कृतज्ञता से भाव विभोर हुए अभिनेता मित्र ने कहा “ इतनी प्रबल उत्तेजना किसने दी ? “
लेखक मित्र का उत्तर था “ तुमने , तुम्हारे प्रेम ने ! ”
कहानी का मर्म जब कई वर्षों के बाद जान पाया तो सच्ची मित्रता का भी अर्थ समझ में आया कि यह नाटक इसी लिए लिखा गया था कि लेखक का मित्र, जो अपना पाँव गंवा चुका था , तैमूर लंग की भूमिका निभा सके ।
सच में ऐसी कालजयी कहानियाँ हर समय तो नहीं लिखी जाती।
कृतज्ञता से भाव विभोर हुए अभिनेता मित्र ने कहा “ इतनी प्रबल उत्तेजना किसने दी ? “
लेखक मित्र का उत्तर था “ तुमने , तुम्हारे प्रेम ने ! ”
कहानी का मर्म जब कई वर्षों के बाद जान पाया तो सच्ची मित्रता का भी अर्थ समझ में आया कि यह नाटक इसी लिए लिखा गया था कि लेखक का मित्र, जो अपना पाँव गंवा चुका था , तैमूर लंग की भूमिका निभा सके ।
सच में ऐसी कालजयी कहानियाँ हर समय तो नहीं लिखी जाती।