Sunday, April 29, 2018

जुड़दे पुल


जुड़दे पुल
पहाड़ी कविता संग्रह
भगत  राम मंडोत्रा
प्रकाशक: भगत  राम मंडोत्रा
कमला प्रकाशन, कमला कुटीर, गांव चम्बी
डाकघर  संघोल, ज़िला कांगड़ा ( हि.प्र. )
पिन: 176091
ISBN: 978-93-5258-202-0
मूल्य: रु. 145/-
जुड़दे पुल  कवि लेखक मित्र श्री भगत राम मंडोत्रा द्वारा रचित 85 पहाड़ी कविताओं का संग्रह है । कवि ने भारतीय सेना में  सूबेदार मेजर ( आनरेरी लेफ्टिनेंट ) के रूप में सेवाएँ दी हैं तथा तदोपरांत  इंटेलिजेंस ब्यूरो में ACIO भी रह चुके हैं । कविता संग्रह काँगड़ी- पहाड़ी बोली में है व अपनी सादा शैली, शब्द चयन  व बिम्ब रचना से आकर्षित करने में पूर्णतया  सक्षम है । अनेक कविताएं ग्राम्य पृष्ठभूमि की हैं ।इस कविता संग्रह का फ़लक विस्तृत है तथा जीवन के सभी रंगों का इसमे समावेश मिलता है। इसमे विशुद्ध हास्य , हल्का सा व्यंग्य, प्रेम , रोमांस सभी कुछ का पुट मिलता है । कवि की पैनी दृष्टि से कुछ नहीं बचता । कविताओं के शीर्षक मसलन भा मत खाई करा’, ये जमीना दे टुकडु’, घघरी’, उम्मीद’, बकरियाँ , गांयीं’, यादां’, बौड़ियाँ’, बोंकरी’, बापू इस देशे नी औणा , मीडिया’, मेले’, महंगाई’, होई सके तां फिरी औणा कलाम’, नुहुआं’, कार्गिल विजय दिवस’, शहीदा जो सलाम’, सही चुणनी असां सरकार आदि आदि अपने आप में बहुत कुछ बता देते हैं। गरज ये कि घरेलू जीवन,प्रदूषण, पर्यावरण संरक्षण, संस्कृति, ग्रामीण परिवेश, देश भक्ति,वर्तमान हालात,  मीडिया की मनमानी व कार-करदगी, एक जागरूक नागरिक के नाते कर्तव्य एवं जिम्मेदारियाँ- लगभग सभी कुछ  को अपनी कविताओं में कवि ने समेटा है।
एक बानगी :
बणी ठणी सामने मत आई करा
असां बी घट नी भा मत खाई करा
...
दिखावे दी तां अजकलहद नी रही
भलेयों ढकी ढकोई आई करा
...........
निआंयेँ दिया देविया हाखीं धूडां जमियां
मकदमे दियां उमरां माहणुआं ते लमियां
.............
होये भला नी बुरा करणा
पापा दी नी पंड बधाणी
............
टब्बरे जो रोटियां थे खुआंदे, ये जमीनां दे टुकडु
बेहलेयां जो रिज़क थे दुआंदे, ये जमीनां दे टुकडु
.............
हवाई मैहलां बिच रहणा छड़ीता
चोर चलाकां कने बैहणा छड़ीता
............
टेकदा था मत्था 'भगत' जिथु  हर बार
पैडियां मंदिरे दी ढही गईयां
..........
होई भ्याग निंदरा छडणा   पौणा
सफर तां मुसाफरा चली के कटोणा
...............

खूब पता होंदा झूठे लारेयां दा
कैंहनी मुकदा अप्पु जो ठगाणे दा चा
.........
हवन पूजा पाठ वेले मरद  पाण धोतियाँ
जणासां दा पवितर पहनाव हर बार घघरी
................
करदी रही साफ सफाई बोंकरी
सड़कां लगाई लसकाई  बोंकरी
बड़ेयां बड़ेयां माणुआं ठुक्का ने
हथ लाई फ़ोटो खिंचाई बोंकरी
..............
आजाद भारते दी सोह
बापू इस देशे नी औणा
पहलें पिस्तोल थी  चलियो
हुण तां तोपां चली पोणा
.............

' हवाई मैहलां बिच रहणा छड़ीता' कविता में  छड़ीता, दसीता, करीता, पढ़ीता, मढ़ीता आदि शब्द ज़ाहिरी तौर पर दो शब्दों के मेल से बने हैं और बोलचाल की भाषा में इसी रूप में  प्रयुक्त होते हैं । इन शब्दों के कारण भी पाठक कविता से अपना जुड़ाव अनुभव करता है ।
सभी कविताएं रोचक भी हैं और संदेशपरक भी । मेरा संबंध यद्यपि शिमला से है , फिर भी  केवल एकाध शब्द से ही मैं अपरिचित था । पाठक अवश्य इन कविताओं का आनंद ले सकते हैं ।
कवि की दो और पुस्तकें भी हैं, जिनकी चर्चा बाद में ।







Tuesday, April 17, 2018

एक कहानी , बिना शीर्षक की

एक
एक बुजुर्ग से दिखने वाले सूटेड बूटेड व्यक्ति जो, हुलिये व चाल ढाल से  रिटायर्ड अधिकारी होने का आभास देते हैं , उस बड़े दफ्तर की सीढ़ियाँ और गलियारे  कदमों से नापते हुए बड़े साहब के कमरे के ठीक बाहर पहुँचते हैं, तो नेम प्लेट पर कुछ कुछ परिचित सा नाम देख कर थोड़ा ठिठकते हैं और रुक जाते हैं । इस से पहले भी इस दफ्तर  में आ चुके हैं पर स्टाफ द्वारा यह बताने पर कि उनका काम time barred होने की वजह से सीधे तौर पर डील नहीं किया जा सकता और साहब के ज़रूरी निर्देश व सहमति वांछित है , आज आए हैं क्यों कि उम्मीद के मुताबिक साहब दौरे से वापिस आ गए हैं और अपने कमरे में तशरीफ फरमा  हैं। PA बता चुका है कि कमरे के बाहर यदि हरी बत्ती जल रही हो तो बे रोक टोक भीतर जा सकते हैं। खैर हरी बत्ती जल रही है, काम बहुत ज़रूरी है तो साहब से मिलना ही है , सोच कर आहिस्ता से दरवाजा भीतर की ओर खोलते हैं ।
दो
दरवाजा खोल कर वो रिटायर्ड अधिकारी भीतर  आते हैं तो किसी को आया देख, साहब का मित्र जो बिलकुल सामने कुर्सी पर बैठ कर बात कर रहा होता है , वहाँ से उठ कर  थोड़ी दूर रखे सोफ़े पर जा कर बैठ जाता है ,क्योंकि वो सरकारी काम में किसी प्रकार की रुकावट नहीं बनना चाहता । सामान्य शिष्टाचार के बाद वह व्यक्ति अपना संक्षिप्त सा परिचय देता है। साहब उस व्यक्ति को सामने कुर्सी पर बैठने के लिए  कहते हैं, और प्यून को बुला कर एक गिलास पानी ऑफर करते हैं । वह व्यक्ति अपने साथ लाये कुछ कागज़ पत्र उन्हें दिखाता है तो साहब उन्हें ध्यान से पढ़ते  हैं और आगंतुक से कुछ पूछते हैं ।  इंटरकाम पर किसी मातहत से बात करते हैं पत्र के आमुख पर कुछ लिखते हैं और घंटी बजा  कर प्यून बुलाते हैं और उसे फलां ब्रांच में कागज़ पत्र  देने को कहते हैं। साहब के मुख पर विनम्रता का भाव है । उस व्यक्ति को आगे दिन आ कर ब्रांच से अपने कागज  कलेक्ट करने के लिए कहते हैं । वह व्यक्ति उठता है और कृतज्ञता प्रकट करते  हुए धीरे से कमरे से बाहर निकाल जाता है । उसके जाने के बाद साहब खुद कुर्सी छोड़ कर मित्र से बातचीत करने के लिए सोफ़े पर आ जाते हैं। दोनों दोस्तों के बीच उनकी आगे की बेतकल्लुफ़ बातचीत का सिलसिला कुछ यूं चलता हैं :
एक बात पूछूं ?
पूछों ।
वैसे तुम्हारे सहज और नम्र स्वभाव से मैं भली भांति परिचित हूँ पर इन जेंटलमैन से बात करते हुए क्या तुम ज़रूरत से ज़्यादा विनम्र नहीं हो रहे थे ?
( विनम्र शब्द दोहराते हुए  साहब ज़ोर का ठहाका लगाते   है  )
यार शुकर कर मैंने इनके चरण नहीं छू लिए ।
क्यों ?
यदि वक़्त बेवफाई ना करता तो ये मेरे ससुर होते ।
आगे साहब की जुबानी -
सुनना चाहता है तो सुन । हुआ यों कि इन साहब ने अपनी लड़की के लिए मेरी बात चलाने के लिए अपने एक मित्र को मध्यस्थ  चुना जो हमारा भी परिचित था । उस समय मेरा कोई विचार शादी करने का नहीं था  क्योंकि मैं उस नौकरी से निकल कर अन्यत्र भविष्य तलाशने के लिए प्रयासरत  था जिस के लिए मुझे प्रतियोगी  परीक्षा में बैठने  की तैयारी करनी थी । पर जब वह मध्यस्थ नहीं माना तो माँ बाप के कहने पर  मैं किसी तरकीब से लड़की देख आया और बात खत्म हो गयी ।
मैं तो खैर भूल चुका था पर कुछ दिन बाद वो मध्यस्थ  मेरे पिताजी को मिला तो कुछ संकोच और कुछ शर्मिंदा हो कर उस लड़की का रिश्ता कहीं और तय होने की बात बताई । वो एक इंजीनियर था, यह मुझे कुछ वर्षों के बाद पता लगा । कौन बाप नहीं चाहेगा कि उसका दामाद एक अफसर हो , और मैं तो सिर्फ एक इंस्पेक्टर था जो इस लिहाज से कहीं निकट नहीं पड़ता था । तुम पूछोगे कि क्या मुझे दुख नहीं हुआ ? हाँ, थोड़ा बहुत वो भी इस लिए कि पहल उस ओर से हो रही थी । इतना ज़रूर पता लगा था कि लड़की कि माँ को अपने पति का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा था । शायद लड़की को भी मैं पसंद था और वो मेरे उसे देखने से , पहले मुझे देख चुकी थी , नहीं तो मेरे देखने की नौबत ही न आती ।
खैर समय बीता। कुछ मेहनत रंग लायी और कुछ किस्मत ने साथ दिया और मैं प्रतियोगी परीक्षा में सफल हुआ । और इस रूप में तुम्हारे सामने हूँ ।
तुम सोच रहे होगे कि मैंने इन्हें पहचाना कैसे, तो वो ऐसे कि आज  कागजों में उनका नाम पता सब दर्ज था।  परज़्यादा जान पहचान  बढ़ा कर और पुरानी याद दिला कर  मैं इन्हें  embarrass नहीं करना चाहता था ।

तीन:
उधर बुज़ुर्ग महोदय कुछ खुशी खुशी और और कुछ अन्यमनसक से अपने घर पहुंचे तो  कोट पैंट उतार कर और कुर्ता पाजामा पहन कर बैठक में आ गए तो पत्नी चाय बना कर ले आयी ।
पत्नी ने पूछा-
 काम  हो गया ?
हाँ, हो गया , कल कागज़ पत्र हाथ में होंगे ।
फिर आपको तो खुश होना चाहिए , और आप कुछ सोच में लग रहे हैं ।
हाँ मैं ये सोच रहा हूँ कि ये अफसर कहीं वो लड़का तो नहीं जिसकी बात हम गुड्डी के लिए चला रहे थे !
और जिसे आपने अपनी बेटी के लायक नहीं समझा ! पत्नी ने ताना दिया ।
अपने उस दोस्त को क्यों नहीं पूछते  जिसे आपने मध्यस्थ बनाया हुआ था  ?
हाँ, यह ठीक है- कह कर उनने उस मित्र को फोन मिलाया तो पूछने पर उनकी बात सही निकली ।
पत्नी को यह बताया तो चाय की चुस्की  के बीच उन दोनों के बीच एक मौन पसर गया ।








Monday, April 16, 2018

THE LOOKING GLASS

THE  LOOKING GLASS is a famous story by Anton Chekhov.
The main character of the story is Nellie, the daughter of a landowner and General.She is young and pretty and is of marriageable age.
One fine day, as per description by the story teller, she with motionless eyes and parted lips is neither asleep nor awake but is seeing.Out of the looking glass emerges the vague image of a man with face , eyes, beard .... who has a soft touch and bearing ,in short her Prince Charming, with whom she is to spend her life. Days ,months and years trickle by.The frame in the mirror changes and one fateful night, she is travelling in a  horse driven coach over a distance of thirty miles to request one Stepan Lukitch to examine her husband who is suffering from typhus. She reaches the doctor's home, who tired after seeing some patients at far off places himself needs rest and advises Nellie to go to Zemostvo doctor . Nellie expresses her inability to do so as this doctor lives twenty miles still farther and the condition of her husband does not warrant any delay.In desperation, she gets harsh too but somehow is able to persuade the doctor to go with her. Travelling through the night, they reach Nellie's home at five in the morning.Nellie enters the house with the doctor, makes him sit in a sofa in the drawing room and herself goes inside to see how her husband is feeling.As she returns to the drawing room,she finds the doctor  uttering something incoherent, virtually in a delirium.
Suddenly another frame emerges, and she thinks of her husband being in financial straits, unable to pay mortgage money to the bank.Next she is face to face with a situation in which she finds her kids afflicted with illness,and fever and not doing well in the school etc.She also see the shadow of death lurking with the attendant images of candles , deacon and the undertaker. All of a sudden something falls from her hand and she is awake only to find that a mirror has fallen to the ground.
'I must have fallen asleep !' she thinks with a sigh of relief.
The story is a complex one, having only two active and existing characters- Nellie and Stepan Lukitch. Even the husband in the story is without a name and only a blurred image of his is described.
The Zemostvo doctor exists only in name and plays no active role.
It is natural for a young and pretty girl of marriageable age to dream of marriage and find love, companionship and security in marriage.At the same time, factually so and the writer would have us believe , that marriage and married life is much more than a Mills & Boon romance,with harsh realities staring in the face.
A wonderful story indeed !

Thursday, April 12, 2018

Gulshan Bawra

Today is the birth anniversary of Gulshan Kumar Mehta , popularly known as Gulshan Bawra the lyricist who also acted in some films.
Born this day in 1937 at Shekhupura( now in Pakistan ), his father and his Uncle both became victims of riots during the Partition.Gulshan and his elder brother somehow managed to cross over to India and were brought up by their elder sister at Jaipur. When the elder brother got a job in Delhi, both the brothers shifted there. Gulshan did his graduation from Delhi University .He wrote poetry even while in College.
As luck would have it, he landed a Clerk's job in Mumbai.He came in contact with Kalyanji and Anand ji.His first song was for the film  Chandrasena which was sung by Lata Mangeshkar.The same year, Kalyanji- Anandji duo used his lyrics for the film Satta Bazar, also their maiden  joint venture as composers. The songs Tumhen Yaad Hoga Kabhi Hum Mile The ( Hemant-Lata) & Chandi ke Chand Tukdon  Ke Liye (Hemant) became instant hits.It was during the making of this film that  ' Bawra' got suffixed to his name.The music for half of his songs was composed by R.D.Burman.
The films for which he wrote lyrics include  Upkar, Zanjeer, Khel Khel Mein, Kasme Vaade, Satte Pe Satta, Agar Tum Na Hote and Awaaz.
Besides, as an actor, he wrote character roles in the films Vishwas, Pavitra Paapi, Pyaar Ki Kahani, Jaane Anjaane,Zanjeer, Shahzada, Lafange, Ye Waada Raha, Boxer, and  Basera.
The popular songs written by him include Chandi ki deewar na todi, Mere Desh Ki Dharti, Yaari hai imaan mera, Sanam teri kasam, Agar tum na hote, Aati Rahengi Baharen, Kasme Vaade Nibhayenge Hum, Pyar Hamen Kis Mod pe le aya and some others.
He won Filmfare Best Lyricist Award twice- in 1968 & 1974.
He died on 7 August, 2009 aged 72.
Our humble tributes !

Tuesday, April 10, 2018

BY THE WAY


We as kids were served  tea and milk in enamel  coated  metal  mugs that we used to call tumblers. These mugs  came with a handle and were therefore easy to hold and grip and being made of metal were  unbreakable. These were  coated with  different  colours  from outside , with or without some design  but the inside was invariably white. These remained in use for a long time  till the enamel would wear way and metal would start showing.These were ordinary stuff, that came  cheap, a far cry from the fancy and costly mugs that are marketed online  nowadays.   But it is for some  unpleasant reason that  these linger in my memory.

I was a 5-6 year old  school going kid when one fateful day, I fell from the bed  the bed  and  the edge  of a tumbler hit me  hard  on the left side  just below the neckline. With  this started my two months’ long ordeal.  Apart from the  pain, the  portion  got swollen and developed into a lump,  much to the  worry  of my parents. I  was taken to the  hospital and the doctor prescribed  injections. On alternate days , I was taken to the hospital, was first given steam   and  afterwards given an injection. This went on for quite some days but was  of no avail . Someone  suggested applying poultice to the  affected portion . Poultice – hot halwa made in alsi oil was  applied  to the  affected portion and it seemed to work . After a  few days, probably on a Sunday, the lump  burst and  a lot of pus came out, which was wiped and removed  with  cotton  . At last my ordeal came to an end , much to the  great relief of my parents.

REMEMBERING BIRBAL SAHNI

Today is the death anniversary of Prof. Birbal Sahni  FRS, an eminent scientist.He was born on 14 November 1891 in an illustrious family of Undivided Punjab that laid great premium on Education. He and his four siblings were sent to England for studies. His grandfather was an amateur researcher in Chemistry and his father Ruchi Ram Sahni was a Professor of Chemistry and also an Archaeologist.
Initially educated at University College ,Lahore and the Punjab University, Birbal Sahni studied at Emmanuel College, Cambridge and subsequently obtained was awarded a Doctor of Science degree from the London Universty in 1919. Returning to India, he taught at the Benaras Hindu University, Punjab University and Lucknow University.
Birbal Sahni who was a paleobotanist ,made a pioneering study and research on Fossils in India.In 1936,he was made a Fellow of the Royal Society, a rare honour those days.
He was hailed as the most handsome FRS.His other interests included Geology and Archaeology.
Many honours and recognition came his way. He was the President of  National Academy of Sciences, India and the Honorary President of International. Congress of Botany, Stockholm .
He died this day in 1949 aged 58.
The Institute of Palaeobotany  that he founded at Lucknow in 1946 was named after him after his death.

Our humble tributes to the great scientist   !

Monday, April 9, 2018

REMEMBERING SHAKTI SAMANTA

Today is the death anniversary of Shakti Samanta the renowned Director and Producer of Indian cinema. He was born on 13thJanuary 1926 at Burdwan, Bengal Presidency of British India.
Making his debut as a film director with the film Bahu in 1955,he founded Shakti Films in1957.A highly talented film director, his filmography includes films like  Howrah Bridge, Insaan Jaag Utha, Jaali Note, Singapore, China Town, Kashmir ki Kali, Saawan ki Ghata, An Evening In Paris,Aradhana, Kati Patang, Pagla Kahin Ka, Amar Prem, Anurag, Charitraheen, Amanush, Mehbooba, Anurodh, The Great Gambler and many others.Starting from big names like
 Ashok Kumar, and Madhubala, down the line he directed actors like Sunil Dutt , Uttam Kumar and Sharmila Tagore.  To him goes the credit of making a superstar out of Rajesh Khanna.The films Aradhana, Anuraag, and Amanush won Filmfare Award.Some of his films made their way to international Film Festivals.He remained the President of Indian Motion Pictures Association for five years, Chairman of the Central Board of Fiim Certfication for seven years, and Chairman of Satyajit Ray Institute of Films & Television, Kolkata for two years.

He died this day in 2009,aged  83.

Our humble tributes !