Monday, October 12, 2015

The Auctioneer

One of the features of my School & College days’ Lower Bazar, Shimla was the presence of a self styled auctioneer.His name was Ganesha or more precisely Ganesa as people would call him. During day time he could be seen holding mostly a wrist watch and sometimes a transistor radio set belonging to someone who was willing to dispose it off and also stood along side.Perhaps it was the need for money which drove people to auction off their belongings.Cash was not so common those days as it is today. Ganesha would call out loud about the changing amount of bid or auction, in between repeating the make of the watch or transistor.Both were shown to be in running condition or who would go for ! Ganesha would charge his commission when the deal was struck. When asked about the guarantee or warranty of the watch or the transistor radio, Ganesa was candid enough to state that guarantee was only up to Taar Ghar, i.e. CTO, just a 5-7 minute walking distance from the scene of auction. Still there were buyers of the object.

Thursday, October 8, 2015

अभिनेता राजकुमार

"चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के बने होते हैं वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते"

अभिनेता स्व. राज कुमार  का ज़िक्र आते ही   फिल्मों  में उनके द्वारा  बोले गए  संवाद  जेहन में  उभर आते हैं नाम और तबीयत  दोनो  से राज कुमार !
स्कूल में कुछ समय के लिए हमारे एक गणित  के अध्यापक थे, बहुत अच्छा पढ़ाते थे , पर किसी  लड़के का हम बोलना उन्हें गवारा नहीं था । किसी बात के जवाब में कोई  हम बोला नहीं कि शामत आई । तुम कोई राजा महाराजा हो जो अपने आप को हम बोलते हो डंडे की मार के साथ यही सुनने को मिलता ।

आज सोचता हूँ कि यदि अध्यापक महोदय राजा महाराजा की जगह  राजकुमार कहते  तो भी बात जच जाती । अभिनेता राजकुमार के मुंह से हम सुनना बहुत अच्छा लगता था, यथा :

"हम तुम्हें मारेंगे और जरूर मारेंगे लेकिन वह वक्त भी हमारा होगा, बंदूक भी हमारी होगी और गोली भी हमारी होगी"

आज इन्हीं राजकुमार साहब की जयंती है .

श्रद्धांजलि !


मोहिदीन

मोहिदीन तुम बहुत याद आते हो
और तुम्हारा हमेशा मुस्कराता चेहरा
 और तुम्हारा भाई  सुल्तान भी ,
 कितना खयाल रखते थे तुम
 कि बाबू ( मेरे पिता ) को कहीं दिक्कत न हो,
 मौसम का मिजाज़ एकाएक बदलने और
 अचानक भारी बर्फ पड़ने से
 अचानक  दो  मन कोयला पीठ पर उठा कर आ धमकते थे तुम
  एक बार तो 2-3 फुट बर्फ के बीच  पहुंचाई थी
 तुमने दो बोरियाँ मन- मन की,
 याद आती है मुझे अपनी माँ भी
 खूब तेज़ जलती अंगीठी  कर दी थी
तुम दोनों के हवाले
 और चाय नाश्ता सा भी  परोसा था कुछ
 नाम गाँव पूछने की ज़रूरत न  तुम्हें पड़ी थी  न हमें न तुम्हें
 बस इंसानियत का  रिश्ता था ,
 जो समय के साथ और गहराया था
यों मेरे शहर का मिजाज़ ज़्यादा बदला नहीं है
फिर भी कुछ तो बदला है
पर  तुम, तुम थे

और वो वक़्त , वक़्त  !