Thursday, October 8, 2015

मोहिदीन

मोहिदीन तुम बहुत याद आते हो
और तुम्हारा हमेशा मुस्कराता चेहरा
 और तुम्हारा भाई  सुल्तान भी ,
 कितना खयाल रखते थे तुम
 कि बाबू ( मेरे पिता ) को कहीं दिक्कत न हो,
 मौसम का मिजाज़ एकाएक बदलने और
 अचानक भारी बर्फ पड़ने से
 अचानक  दो  मन कोयला पीठ पर उठा कर आ धमकते थे तुम
  एक बार तो 2-3 फुट बर्फ के बीच  पहुंचाई थी
 तुमने दो बोरियाँ मन- मन की,
 याद आती है मुझे अपनी माँ भी
 खूब तेज़ जलती अंगीठी  कर दी थी
तुम दोनों के हवाले
 और चाय नाश्ता सा भी  परोसा था कुछ
 नाम गाँव पूछने की ज़रूरत न  तुम्हें पड़ी थी  न हमें न तुम्हें
 बस इंसानियत का  रिश्ता था ,
 जो समय के साथ और गहराया था
यों मेरे शहर का मिजाज़ ज़्यादा बदला नहीं है
फिर भी कुछ तो बदला है
पर  तुम, तुम थे

और वो वक़्त , वक़्त  !

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