स्मृति शेष
तेज राम शर्मा (25.3.1943- 20.12.2017)
असमंजस में हूँ कि उन जैसी शख्सियत को किस रूप में याद करूँ !
संक्षेप में कुछ इस तरह –
मार्च-अप्रैल 1976- भारतीय वायु सेना में कमीशन हेतु SSB के समक्ष साक्षात्कार हेतु प्रस्तुत होने के लिए मेरा देहरादून जाना हुआ। उनका आग्रह कि वापसी में अमृतसर आऊँ जहां वो उस समय सेवाएँ दे रहे थे। मैं अमृतसर आया और दो सप्ताह से भी अधिक उनके साथ रहा। वाघा बार्डर समेत जो कुछ भी अमृतसर में दर्शनीय था , उनके सौजन्य से देखने को मिला। स्वर्ण मंदिर, जलियाँवाला बाग़, राम तीर्थ, ब्यास स्थित डेरा बाबा जैमल सिंह, वेरका मिल्क प्लांट सब कुछ उनने दिखाया।ब्यास डेरे में तो एक रात भी काटी। खाली समय में उनके पुस्तक संग्रह से प्रेमचंद और शरतचंद्र के उपन्यास भी पढ़े ।
मई- जून ,1977 मेरी बैंक में नयी नयी नियुक्ति हुई थी और मुझे नियमानुसार agreement का प्रारूप तैयार करना था व कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी थी। शर्मा जी जो उस समय SSPOs शिमला के पद पर तैनात थे , ने न केवल औपचारिकताएं पूरी करवाईं बल्कि मेरे guarantor भी बने । यों तो मुझे शिमला की ही नियुक्ति मिली थी , पर एक दिन का विलंब मेरी ओर से जॉइनिंग में हो गया था और इस बीच कोई और बाज़ी मार गया था और मेरे स्थान पर शिमला में पदस्थापित हो चुका था । परिणाम स्वरूप मुझे सोलन जाना पड़ा । इस बीच शर्मा जी मेरे शिमला स्थानातरण के लिए प्रयत्नशील रहे और मात्र 11 महीने बाद मैं शिमला आ गया । मंशा ये थी कि शिमला में रह कर मैं साथ साथ किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करूँ । एक बार नहीं बल्कि कई बार उनने मुझसे यही कहा “ You can make it with a bit of hard work !” पर मॉल रोड की मटर गश्ती के बीच मुझसे अपेक्षित hard work न हुआ और मेरा I.A.S अफसर बनना दिवास्वप्न बन कर रह गया.
खैर समय बीतता गया और वे भी स्थानांतरण और पदोन्नति पर अन्यत्र चले गए पर साल में एक बार उनके शिमला आने पर मुलाकात का सिलसिला जारी रहा ।
कुछ वर्षों बाद जब मैं सरकारी सेवा में आया तो मुझसे अधिक प्रसन्नता उन्हें हुई। इस बीच मेरे विवाह की बारी आयी तो संबन्धित पक्ष से बात चीत के माध्यम भी वही बने क्योंकि उनकी उन लोगों से पुरानी जान पहचान थी।
यों पढ़ने में मेरी कुछ रुचि पहले भी थी पर हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकारों मसलन हरिवंशराय बच्चन की रचनाओं से मेरा परिचय उनने ही कराया। कई बार तो उनके द्वारा खरीदी गयी किताबें हम दोनों ने साथ साथ पढ़ीं । विष्णु प्रभाकर रचित ‘आवारा मसीहा’ व श्रीलाल शुक्ल रचित ‘राग दरबारी” के साथ साथ बच्चन जी की आत्मकथा के चारों खंड उनके सौजन्य से ही पढ़े। अङ्ग्रेज़ी में Nirad Chaudhri की Autobiography of an Unknown Indian , Dr. S. Radhakrishnan की Glimpses of World Religions, Raja Rao की Kanthapura, Lin Yutang की The Importance of Living जैसी पुस्तकों से परिचय उनने ही करवाया । शिमला में अपनी पोस्टिंग के चलते उनने हिमाचल विश्वविद्यालय से एम.ए. हिन्दी की परीक्षा पास की व इलाहाबाद के कार्यकाल में वहाँ से साहित्यरत्न किया।
शायद बहुत कम लोगो को ज्ञात होगा कि 90 के दशक के उत्तरार्द्ध के वर्षों में उनके लिखे कुछ ‘middle’, The Tribune में भी छपे पर भाषा के मामले में हिन्दी उनका प्रथम प्रेम था , और वो हिन्दी भाषा के प्रति ही समर्पित रहे ।
हिन्दी भाषा के प्रति अगाध प्रेम व हिन्दी साहित्य के प्रति अनुराग के चलते अपने इलाहाबाद के कार्यकाल में वहाँ रहने वाले लगभग सभी साहित्यकारों से उनने भेंट की । मेरे साथ बातचीत में महादेवी वर्मा, और पी.डी. टण्डन से हुई मुलाक़ातों का ज़िक्र किया ।बाद में पता लगा डा. रामकुमार वर्मा से भी वे मिले थे। महादेवी वर्मा के प्रति उनमें विशेष श्रद्धा का भाव था व उनके विषय में ‘यथा नाम तथा गुण’ वाली बात उनने मुझसे कही थी ।
अभी 21 दिसम्बर को शिमला – सुन्नी- लुहरी मार्ग पर पंदोआ में सतलुज के बाएँ तट पर उनके नश्वर शरीर को पंचतत्व में विलीन होते देखना एक पीड़ादायक अनुभव रहा ।
यों हम सब की नियति यही है पर फिर भी..........!
असमंजस में हूँ कि उन जैसी शख्सियत को किस रूप में याद करूँ !
संक्षेप में कुछ इस तरह –
मार्च-अप्रैल 1976- भारतीय वायु सेना में कमीशन हेतु SSB के समक्ष साक्षात्कार हेतु प्रस्तुत होने के लिए मेरा देहरादून जाना हुआ। उनका आग्रह कि वापसी में अमृतसर आऊँ जहां वो उस समय सेवाएँ दे रहे थे। मैं अमृतसर आया और दो सप्ताह से भी अधिक उनके साथ रहा। वाघा बार्डर समेत जो कुछ भी अमृतसर में दर्शनीय था , उनके सौजन्य से देखने को मिला। स्वर्ण मंदिर, जलियाँवाला बाग़, राम तीर्थ, ब्यास स्थित डेरा बाबा जैमल सिंह, वेरका मिल्क प्लांट सब कुछ उनने दिखाया।ब्यास डेरे में तो एक रात भी काटी। खाली समय में उनके पुस्तक संग्रह से प्रेमचंद और शरतचंद्र के उपन्यास भी पढ़े ।
मई- जून ,1977 मेरी बैंक में नयी नयी नियुक्ति हुई थी और मुझे नियमानुसार agreement का प्रारूप तैयार करना था व कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी थी। शर्मा जी जो उस समय SSPOs शिमला के पद पर तैनात थे , ने न केवल औपचारिकताएं पूरी करवाईं बल्कि मेरे guarantor भी बने । यों तो मुझे शिमला की ही नियुक्ति मिली थी , पर एक दिन का विलंब मेरी ओर से जॉइनिंग में हो गया था और इस बीच कोई और बाज़ी मार गया था और मेरे स्थान पर शिमला में पदस्थापित हो चुका था । परिणाम स्वरूप मुझे सोलन जाना पड़ा । इस बीच शर्मा जी मेरे शिमला स्थानातरण के लिए प्रयत्नशील रहे और मात्र 11 महीने बाद मैं शिमला आ गया । मंशा ये थी कि शिमला में रह कर मैं साथ साथ किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करूँ । एक बार नहीं बल्कि कई बार उनने मुझसे यही कहा “ You can make it with a bit of hard work !” पर मॉल रोड की मटर गश्ती के बीच मुझसे अपेक्षित hard work न हुआ और मेरा I.A.S अफसर बनना दिवास्वप्न बन कर रह गया.
खैर समय बीतता गया और वे भी स्थानांतरण और पदोन्नति पर अन्यत्र चले गए पर साल में एक बार उनके शिमला आने पर मुलाकात का सिलसिला जारी रहा ।
कुछ वर्षों बाद जब मैं सरकारी सेवा में आया तो मुझसे अधिक प्रसन्नता उन्हें हुई। इस बीच मेरे विवाह की बारी आयी तो संबन्धित पक्ष से बात चीत के माध्यम भी वही बने क्योंकि उनकी उन लोगों से पुरानी जान पहचान थी।
यों पढ़ने में मेरी कुछ रुचि पहले भी थी पर हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकारों मसलन हरिवंशराय बच्चन की रचनाओं से मेरा परिचय उनने ही कराया। कई बार तो उनके द्वारा खरीदी गयी किताबें हम दोनों ने साथ साथ पढ़ीं । विष्णु प्रभाकर रचित ‘आवारा मसीहा’ व श्रीलाल शुक्ल रचित ‘राग दरबारी” के साथ साथ बच्चन जी की आत्मकथा के चारों खंड उनके सौजन्य से ही पढ़े। अङ्ग्रेज़ी में Nirad Chaudhri की Autobiography of an Unknown Indian , Dr. S. Radhakrishnan की Glimpses of World Religions, Raja Rao की Kanthapura, Lin Yutang की The Importance of Living जैसी पुस्तकों से परिचय उनने ही करवाया । शिमला में अपनी पोस्टिंग के चलते उनने हिमाचल विश्वविद्यालय से एम.ए. हिन्दी की परीक्षा पास की व इलाहाबाद के कार्यकाल में वहाँ से साहित्यरत्न किया।
शायद बहुत कम लोगो को ज्ञात होगा कि 90 के दशक के उत्तरार्द्ध के वर्षों में उनके लिखे कुछ ‘middle’, The Tribune में भी छपे पर भाषा के मामले में हिन्दी उनका प्रथम प्रेम था , और वो हिन्दी भाषा के प्रति ही समर्पित रहे ।
हिन्दी भाषा के प्रति अगाध प्रेम व हिन्दी साहित्य के प्रति अनुराग के चलते अपने इलाहाबाद के कार्यकाल में वहाँ रहने वाले लगभग सभी साहित्यकारों से उनने भेंट की । मेरे साथ बातचीत में महादेवी वर्मा, और पी.डी. टण्डन से हुई मुलाक़ातों का ज़िक्र किया ।बाद में पता लगा डा. रामकुमार वर्मा से भी वे मिले थे। महादेवी वर्मा के प्रति उनमें विशेष श्रद्धा का भाव था व उनके विषय में ‘यथा नाम तथा गुण’ वाली बात उनने मुझसे कही थी ।
अभी 21 दिसम्बर को शिमला – सुन्नी- लुहरी मार्ग पर पंदोआ में सतलुज के बाएँ तट पर उनके नश्वर शरीर को पंचतत्व में विलीन होते देखना एक पीड़ादायक अनुभव रहा ।
यों हम सब की नियति यही है पर फिर भी..........!
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