शैलेश मटियानी मेरे प्रिय
कथाकार हैं। एक अरसे से उनकी चर्चित
कहानी ‘मैमूद’ पढ़ना चाह रहा था । अभी हाल में गूगल के सौजन्य से
नेट पर मिल गयी । यूं तो कहानी के शीर्षक से पहले ही अंदाज़ा हो गया था कि मैमूद शब्द महमूद का ही
स्थानीय बोलचाल में परिवर्तित रूप है। कहानी के शुरू में ही महमूद का परिचय मिल
जाता है और आश्चर्यजनक रूप से वह व्यक्ति
न हो कर एक पालतू बकरा है जिसे उसकी
मालकिन जद्दन बच्चों से भी ज़्यादा प्यार करती है। यहाँ तक कि अपनी एक साथिन
रहिमन के ‘ बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी’ जैसी आम कहावत मुंह से निकालने
पर उससे उलझ पड़ती है ।
खैर कहानी में मोड तब आता है जब
कोई रिश्तेदार जद्दन के घर आने वाले होते हैं और उनकी आव भगत
में कोई कोर कसर न रह जाए, इस बात कि चिंता
परिवार वालों को आ घेरती है । बिरादरी में गोश्त परोसा जाना दावत का एक ज़रूरी हिस्सा है, तो अन्य विकल्प जो कि आर्थिक तंगी की वजह से अपनाना असंभव जान पड़ता है, की अपेक्षा, बात
मेहमूद पर आती है कि क्यों न मेहमानों को उसी का गोश्त परोसा जाए। एक तरफ
निर्धनता और दूसरी तरफ बिरादरी में नाक कटने
से बचाने की चिंता क्योंकि उनके घर जाने पर
रिश्तेदारों ने भी आवभगत में
कोई कमी न रखी थी। कोई चारा न देख जद्दन मातमपुरसी
का बहाना बना कर कहीं रिश्तेदारी के लिए प्रस्थान कर जाती है, क्योंकि अपने सामने वह ऐसा होते हुए नहीं देख सकती .रात को जद्दन के वापिस आने तक सब कुछ हो चुका होता है।
जद्दन दुखी भी है और क्षुब्ध भी इसलिए खाना खाने से इंकार कर देती है ।
आखिर ‘बकरे की माँ कब तक
खैर मनाएगी’ कहावत ही
साक्षात रूप ले लेती है, और वह भी इतनी जल्दी ।
शैलेश मटियानी की यह कहानी बहुत
कुछ सोचने पर मजबूर करती है ।
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