Tuesday, September 20, 2016

मीर तकी 'मीर '

दिखाई दिये यूं कि बेख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले’
‘इब्तदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या’
‘हम हुए तुम हुए ‘मीर’ हुए
उसकी ज़ुल्फों के सब असीर हुए’
‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने , बाग़ तो सारा जाने है’
‘गोर किस दिलजले की है ये फ़लक
शोला इक सुबह जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है’
कुछ बहुत ही मक़बूल ग़ज़लों के ये अश’आर हम सबने सुने है और सुनते हैं.
यूँ शो'अरा में कुदरतन रकाबत और आपसी नोक झोंक के किस्से भी कम नहीं , पर एक दूसरे की काबलियत , फ़न और हुनर की क़द्र भी करते थे और एहतराम भी . शायरेआज़म मिर्ज़ा ग़ालिब ने मीर,जिन्हें वो अपना गुरु मानते थे, के बारे में लिखा था :
"रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था "
आज उन्हीं मीर तकी 'मीर ' की पुण्यतिथि है.
इस अज़ीम शायर को हमारी श्रद्धांजलि !

No comments:

Post a Comment