तेज
राम शर्मा
(25
मार्च 1943- 20 दिसम्बर 2017)
आदतन , हर सुबह जिन मित्रों,
प्रियजनों व परिजनों का जन्मदिन मुझे याद
रहता है , उन्हें मैं
शुभकामना संदेश अवश्य भेजता हूँ । आज का दिन मेरे लिए विशेष होने वाला था
क्योंकि आज WhatsApp व उसके
बाद दूरभाष पर आपको 75 के लैंडमार्क
पर पहुँचने की बधाई देनी थी पर नियति को यह स्वीकार नहीं था। आप तीन महीने पूर्व ही अनंत यात्रा पर निकल पड़े, बहुत कुछ पीछे छोड़ कर ! आज केवल आपको याद ही
कर सकता हूँ, अनेक
कारणों से । जब भी आपके घर जाना हुआ, संयोगवश आप पूजा-ध्यान
में पाये गए । ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती थी ।
पूजा के बाद बैठक में आते तो चिरपरिचित सौम्य सहज मुस्कान के साथ, प्रसाद के
तौर पर किशमिश के कुछ दाने हाथ पर रख देते, यों आपसे मिलना अपने आप में ही प्रसाद से
क्या कम था ! भोजन व चाय आदि के साथ साथ ही बात चीत का सिलसिला भी
चलता । बात चीत ज़्यादा लेखन- पठन के इर्द गिर्द
ही होती । आपका धीमी आवाज़ में बात करना बहुत शांति देता था । आपके मुंह से
कभी किसी की बुराई नहीं सुनी । विनम्रता आपके व्यवहार का स्वाभाविक गुण था ।
सादगी और गहराई आपके व्यक्तित्व और
कवित्व दोनों की विशेषता रही ।
ज़्यादा
कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हूँ ।
आपकी
ही कविता से समाप्त कर रहा हूँ -
चला जाऊंगा दूर तक
वसंत ऋतु है और
अवकाश का दिन
आज मैं बहुत कुछ बनना चाहता हूँ
सबसे पहले
सूरजमुखी बनूँगा
हवा के संग हिलाता रहूँगा सिर
सहस्र मुखों से पीऊँगा धूप
टहनियों पर सुनूँगा नई कोंपलों की कुलबुलाहट
फूल चूही की चोंच बनूँगा
अमृतरस पी जाऊँगा
मंजनू के पेड़ पर
गौरैया के संग खूब झूलूँगा
अखबार बनूँगा आज
पन्ने-पन्ने पढ़ा जाऊँगा
तुम भी पुराना ट्रंक खोल दो
वर्षों में ऐसा कोई दिन नहीं था
कि बंद पड़े प्रेम-पत्रों को धूप दिखाना
दूब की तरह बिछा रहूँगा
निश्चिंत सुनूँगा सभी स्वर
डिश ऐंटीना की तरह
ऊपर के सभी संकेतों को
पकड़ लूँगा
निर्वाण के स्मित-आ कोई मुखौटा
आज पहन लूँगा
पीपल के सूखे पत्ते की तरह
बड़बड़ाऊँगा कुछ
और हवा के साथ नृत्य करते हुए
खिंचा चला जाऊँगा दूर तक ।
अवकाश का दिन
आज मैं बहुत कुछ बनना चाहता हूँ
सबसे पहले
सूरजमुखी बनूँगा
हवा के संग हिलाता रहूँगा सिर
सहस्र मुखों से पीऊँगा धूप
टहनियों पर सुनूँगा नई कोंपलों की कुलबुलाहट
फूल चूही की चोंच बनूँगा
अमृतरस पी जाऊँगा
मंजनू के पेड़ पर
गौरैया के संग खूब झूलूँगा
अखबार बनूँगा आज
पन्ने-पन्ने पढ़ा जाऊँगा
तुम भी पुराना ट्रंक खोल दो
वर्षों में ऐसा कोई दिन नहीं था
कि बंद पड़े प्रेम-पत्रों को धूप दिखाना
दूब की तरह बिछा रहूँगा
निश्चिंत सुनूँगा सभी स्वर
डिश ऐंटीना की तरह
ऊपर के सभी संकेतों को
पकड़ लूँगा
निर्वाण के स्मित-आ कोई मुखौटा
आज पहन लूँगा
पीपल के सूखे पत्ते की तरह
बड़बड़ाऊँगा कुछ
और हवा के साथ नृत्य करते हुए
खिंचा चला जाऊँगा दूर तक ।
सादर स्मरण !
नमन !
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